Monday, September 28, 2009

BEST GIFT I'VE EVER RECIEVED....thanx pallavi!

Those who know Nidhi ..and know her well ...we all salute her strength and the way she is living her life...hats off to you Nidhi ...i gain my strength from you...and this poem is dedicated to you.

A strong woman works out every day to keep her body in shape ...
but a woman of strength kneels in prayer to keep her soul in shape...
A strong woman isn't afraid of anything ...
but a woman of strength shows courage in the midst of her fear...

A strong woman won't let anyone get the best of her ...
but a woman of strength gives the best of her to everyone...

A strong woman makes mistakes and avoids the same in the future...
a woman of strength realizes life's mistakes can also be God's blessings and capitalizes on them...

A strong woman walks sure footedly ...
but a woman of strength knows God will catch her when she falls...

A strong woman wears the look of confidence on her face ...
but a woman of strength wears grace...

A strong woman has faith that she is strong enough for the journey ...
but a woman of strength has faith that it is in the journey that she will become strong...

BY PALLAVI RAO.

"I'm overwhelmed......thanku girlie"

Saturday, September 12, 2009


Now you understand
Just why my head's not bowed.
I don't shout or jump about
Or have to talk real loud.
When you see me passing
It ought to make you proud.
I say,
It's in the click of my heels,
The bend of my hair,
the palm of my hand,
The need of my care,
'Cause I'm a woman
Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.


Thanx nimi, thats the best compliment, i've ever recieved......

Friday, September 11, 2009

खलिश--------जावेद अख्तर !




मैं पा सका न कभी इस खलिश से छुटकारा,
वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा,

बरस के खुल गए हैं आंसू, निठेर गई है फिजा,
चमक रहा है सरे-शाम दर्द का तारा,

किसीकी आँख से टपका था एक अमानत है,
मेरी हथेली रखा हुआ ये अंगारा,

जो पर समेटे तो एक शाख भी ना पाई ,
खुले थे पैर तो मेरा आसमा था सारा,

वो सांप छोढ़ दे डसना yऐ मैं भी कहता हूँ,
मगर लोग छोडेंगे न उसको गर न फुंकारा .............

निमिषा...तुम्हारे लिए!

गम खाया है, आंसू पिए हैं,

तिल-तिल करते रोज़ जिए हैं,

क्या बताएं तुम्हें , क्या जानना चाहोगी,

apne हाथों से अपने ज़ख्म सिये हैं................

बीता कल था बीत गया,

घाव था एक जो रिसता रहा,

कब, कहाँ, कैसे कुछ याद नहीं,

उस ज़ख्म पर रुई के फाये कभी रखे नहीं......

इंतज़ार करती हूँ अब तो सिर्फ़ मौत का जाकर पूछूं खुदा से ऊपर किसी दिन,

क्या सोचा था, हार जाऊंगी, टूट जाऊंगी,

कैसे लगा तुम्हें ,मुझमें तुमसे लड़ने का दम नहीं ....................

Wednesday, September 9, 2009

आज शायद मैं सो पाऊंगी....

आज शायद मैं सो पाऊंगी,

स्वप्ना सजीले के दर्पण में ख़ुद से आँखें मिला पाऊंगी,

कुछ अद्भुत हुआ क्या आज? तुम पूछोगे,

उत्तर इस प्रश्न का कैसे समझा पाऊंगी,

कुछ ख़ास तो नहीं फिर भी कुछ भिन्न था,

अपने रोज़मर्रा के काम की थकान से मन काफ़ी खिन्न था,

फिर भाग्य ने मुझे मौका दिया,

एक "माँ" के दर्द ने मुझे चौंका दिया,

उसका नन्हा बालक बहुत बीमार था, सड़क पर एक मैली -कुचैली सी गुदडी में लिपटा लेटा हुआ उसे तेज़ बुखार था,

वो "माँ" एक धोबन थी, उसके चारों तरफ़ प्रेस करने वाले कपडों का अम्बार था,

बेचारी अपने काम से आँखें चुरा कर बीच-बीच में देख लेती थी,हर माँ की तरह मन उसका भी लाचार था,

मैं काफ़ी देर तक छत्त से बैठी ये क्रम देखती रही,उस प्रेस के खोखे में आज अजीब सी खामोशी का हाहाकार था,

कुछ देर बाद वहां की बेचैन खामोशी मुझे विचलित करने लगी,

मेरे मन में भी ममता की चीत्कार उठने लगी,

मैं झटपट उतर कर सड़क-पार गई, हलके से उस "माँ" के कंधे पर हाथ रखा,

विस्मित ,विक्षिप्त सी "माँ" ने तुंरत पलट कर सामने खड़ी दूसरी माँ की आँख में अपने दुःख का भाव देखा,

उस बेचारी के सबर का बाँध टूट पड़ा, आंखों से अश्रु धारा बहने लगी,

कुछ कहे , कुछ अनकहे शब्दों के बीच वो अपने भाग्य को कोसने लगी ,

मजदूरी करना उसकी मजबूरी थी, एक वो ही थी गृहस्थी में जो हाथ-पाऊँ से पूरी थी,

बिलख-बिलख कर रोती उस सामने खड़ी " माँ "की आवाज़ मेरे कानों में सीसा घोल रही थी ,

वो उसका जीवन सत्य था , प्रतीत होता जैसे कहानी बोल रही थी,

एक अपाहिज की बीवी और पाँच अबोध बच्चों की माँ थी,

लोग धोबन ही समझते ,भूल जाते की वो भी हाड-मांस की बनी इंसान थी ,

वो मन को बेंधती आँखें, जर्जर सा हड्डियों का ढांचा, बोलते बोलते मुझ में इंसानियत को ढूंढ रहा था,

शर्मसार थी मैं , मुझे कुछ हल नहीं सूझ रहा था,

उसके अंतर्मन की आंधी निशब्द हो कर जब रुकी, मेरी पढ़ी-लिखी पलक स्वतः नीचे झुकी,

कितने निष्ठुर-कितने स्वार्थी हैं हम लोग जो ख़ुद को संपन्न कहते हैं,

शिक्षा के सार की निरंतर निर्लज्जता से अवहेलना करते रहते हैं,

क्या सीखा हमने ?कुछ भी तो नहीं,

एक इंसान का दुःख भी अगर हम बाँट नहीं सकते हैं,

अमीर-गरीब,छोटा-बड़ा,साक्षर-निरक्षर की खाई को अगर हम पाट नहीं सकते हैं,

क्यों उसकी पीड़ा -मेरी पीड़ा से कम है, क्यों उसकी ममता -मेरी ममता में अन्तर है,

बनाने वाला तो सुना है सबका वही एक इश्वर है..........................

धिक्कार है इस दिखावे की चकाचौंध पर ,जो एक माँ को दूसरी माँ का दुःख समझने से रोकती है,

नोच फेंकती हूँ इन सामजिक रूढियों को मैं आज जो वर्गीकरण के नाम पर गरीबों का खून पूरी चुस्ती से चूसती है,

केवल स्थिर खड़े रह कर उसके कहे को सुना मैंने, एक असहाय बहादुर सबला के दुःख को आत्मसार किया मैंने,

मन हल्का कर लेने से ही वो कृतज्ञ थी,

इसके आगे कुछ करूं मैं, न उसे अपेक्षा थी-न ही मैं समर्थ थी,

एक माँ ने कहा- एक माँ ने सुना,

वात्सल्य ने नया सा रिश्ता बुना....

बस इसके आगे और नहीं कुछ कह पाऊंगी,

मैं भी स्वार्थी हूँ, यही सोच कर खुश हूँ की शायद आज मैं सो पाऊंगी............................

Monday, September 7, 2009

मुशायरा !!

निधि........कोई उत्साह नहीं, कोई उमंग नहीं, मेरी इन्द्रधनुष में आज कोई रंग नहीं.........



पल्लवी............दर्द है, नासूर है , कोई कज़ा है,
कौन जाने है की मेरे जी में क्या है,
तुम तो खुशफहमी में हमदर्दी जताओ!

निधि...........खुशफहमी में तो ज़िन्दगी बेजार कर ली हमने,
कोई आए-हमें समझे,इस इंतज़ार में ज़िन्दगी निसार कर दी हमने,
ये इंतज़ार शायद कभी ख़तम नहीं होगा,उम्मीद से दोस्ती फिर भी बरकरार राखी हमने !!

पल्लवी............शायरा हो तुम,
एक उम्र से स्याह करती हो सिर्फ़ कागज़ तमाम,
जो होती सौदागर तो किताबें छापतीं !!



मज़ा आ गया पल्लवी, लफ्जों के इस लें - देन में..............

मैं और मेरी तन्हाई!!

ज़िन्दगी को छोटे-२ लम्हों में जिया है मैंने,

जो जब तक साथ चला, हमकदम बन साथ दिया है मैंने,

दो -राहे पर आकर गर पाँव रुके कभी तो हसरतों को हसीं मोढ़ दे कर छोढ़ दिया मैंने,

उबड़-खाबड़ रास्तों पर रुकना सीखा ही नहीं था, अपनी मंजिल तक की पगडण्डी को ख़ुद निखारा मैंने ,

आज बे- रंग, फीकी, धुंधली सी दिखती है परछाईं शायद मेरी , पर ज़िन्दगी के हर रंग को छुआ है मैंने.............