Wednesday, December 8, 2010

मंच...


आज फिर जिया उन चंद हसीं लम्हों को मैंने जो मेरी पहचान हुआ करते थे........ रुआंसी सी हो गयी थी मैं आवाज़ कुछ भर्राई थी, चंद लम्हों के लिए मेरे चारों ओर सिर्फ मेरी तन्हाई थी, वो मंच जो मेरी पहेचान हुआ करता था, वो खूबियाँ जिन पर कभी गुमान हुआ करता था , आज उस मंच से फिर रु-बरु हुई........................ कहाँ खो गयी हूँ मैं, क्यों मिल नहीं जाती खुद को वापिस , मैं जीना चाहती हूँ , मैं ज़िन्दगी को चाहती हूँ, हाँ, मैं जीना चाहती हूँ!

Wednesday, July 21, 2010

टीवी तब और अब....


उस साल asiad हुए थे और मैं कुल बरस की थी, शहर, क़स्बा, देश हर सरहद से बेखबर ..... तभी हिंदुस्तान में एक बदलाव आया था , मेरे मालिक--मकान जिनको हम दादाजी कहते थे उनके घर पर एक छोटा सा बक्सा आया था जिसके अन्दर घुस कर लोग बोलते-चालते, हँसते-गाते थे और वो सब कुछ करते थे जो मैं बाहर कि वास्तविक दुनिया के लोगों को करते देखती थी, मुझे बताया गया वो टीवी है। बड़ा अचम्भा हुआ था , ढेरों सवाल थे, जिज्ञासा थी जानने-समझने क़ी कि इसके अन्दर लोग घुसते कैसे हैं और इतने छोटे -बौने होने पर भी सामान्य क्यों दिखते हैं?बहुत रसूख की बात मानी जाती थी , उस घर का मोहल्ले में रुतबा ही अलग होता था क़ी जिसकी छत्त पर तीन डंडियों वाला एंटीना होता था .......मेरा बल-मन भी अपनी छत्त पर एंटीना देखने को लालायित रहता था पर पापा से कहने क़ी हिम्मत नहीं होती थी इसलिए दादाजी के घर पर जा कर "कृषि दर्शन" देख कर खुश हो जाते थे। हालांकि, तब बेहद बुरा लगता था क़ी जब दादाजी बिना बताये कहीं बाहर चले जाते .. उससे भी ज्यादा होता था अपमान का आभास जब दादाजी खाना खाने के समय चित्रहार से उठा कर हम बच्चों को घर भेज देते थे .....ये क्रम कुछ - महीने चला क़ी एक दिन हमारे घर पर भी टीवी गया , वो दिन आज भी मुझे भली-भाँती याद है, बहुत खुश थी मैं, हमारी छत्त पर भी एंटीना था, हमारे अपने टीवी का। और जब एसिअद शुरू हुआ तो जीत-हार समझ आये आये सिर्फ टीवी देखने के लिए घंटों मैंने तैराकी, बन्दूक-बाज़ी, तीरंदाजी , हर स्पर्धा देखि। कितना अजीब जूनून था.... इस साल फिर देश में commonwealth खेल होने जा रहे हैं, आज मैं एक साल के बच्चे क़ी माँ हूँ...टीवी के बिना ज़िन्दगी नीरस है , बाहर के खेल कूद की जगह कार्टून ने ले ली है, दादा-दादी क़ी कहानियों का तोड़ है tata sky क़ी एक्टिव सर्विस, पड़ोसियों के सुख-दुःख क़ी परवाह हो- सीरियल के heroine से जज़्बात ज्यादा जुड़े हुए हैं, आज टीवी हर घर में है क्योंकि वो babysitter का काम करता है। संकल्प लिया है फिर से अपना बचपन दुबारा जीने का ,खेल स्पर्धा बैठ कर देखने का और अपने परिवार को दिखाने का क्योंकि बचपन में टीवी ही हम सब को ,एक परिवार को एक साथ बांधता था कभी हमलोग दिखा कर कभी राम दर्शन करा कर ,इस बार टीवी को बच्चों को व्यस्त रखने का माध्यम बना कर उनकी खेलों में रूचि बढ़ने के लिए मैं टीवी का उपयोग करूंगी......और आप???

Tuesday, May 18, 2010

भगवान् को देखा......


कहते हैं बच्चे भगवान् का रूप होते हैं,
निश्चित ही भगवान् होगा वो जो लू के थपेड़ों को झेलता,मुस्कुराता हुआ,
मट्टी से बने हाथों से, मट्टी के टीले को खोदता हुआ ,
ज़मीन से निकलती आग कि गोद में बैठ कर अपना बचपन ढूंढ रहा था ,
जिस्म पर एक चिंदी भी नहीं थी, इस भभकती गर्मी का शायद यही एक मात्र जवाब था उसके पास,
मजदूर का बेटा था वो , वही मजदूर जो अपने परिवार की छाया काटकर इंसानों के लिए अट्टालिका बना रहा था,
इस मई की गर्मी में दो जून रोटी की खातिर पानी की तरह पसीना बहा रहा था......
निश्चित ही भगवान् होगा वो क्योंकि इंसान तो वतानकूलित पांचसितारा कान्फेरेंस कमरों में बैठ कर "ग्लोबल वार्मिंग" पर विचार विमर्श करते हैं, ज्ञानि हैं ये शीघ्र इस मसले का भी हल ढूंढ निकालेंगे ..............
डर ये है सिर्फ की तब तक बचपन को खोद कर खोजते- इस भगवान् की हथेली पर अगण्य छाले पढ़ जायेंगे ,हल मिलते-मिलते उसका बचपन बीत जाएगा..... ....निश्चित ही भगवान् है वो!

आज मैंने स्वयं भगवान् को देखा !!


Living next to a construction site, I witness such miracles day & night ......ALAS!There is nothing I am able to do about it. Man is indeed his own biggest enemy , his greed in-quenchable ,contentment missing .

Sunday, April 11, 2010

????????

आज फिर उम्मीद का हाथ थामकर, उदासी को काँधों पर लिए,
आँखों से नमी के परे झांकते, ज़िन्दगी कि सरहद ढूँढने निकले हैं,
क्या जानें इस राह कि मंजिल है कि नहीं......

Tuesday, March 9, 2010

रुंधा सवाल!!


क्यों जन्मा था मुझे जो किसी को यूँ ही अर्पण कर देना था,
क्यों कहा अपना जो सदा के लिए पराया कर देना था,
गर्भ में पीढ़ा मैंने भी उतनी ही दी तो क्यों किसी से कमतर हुई,
रात-२ जाग पाला मुझे भी तेरी ममता तो समान्तर रही!

बचपन खेला जिस आंगन में जहाँ उम्र कि बेल बढ़ी,
उसी आँगन में जाने को आज क्यों उलझे से नियमों में बंधी,
हल्का ताप होता था मुझे, पसीना तुझे आ जाता था,
दे दिया भेंट कन्या को जब तब कलेजा क्यों नहीं कांपा था!

जिस गोद पली जिन कांधो पर चली,
वो
रिश्ते पीछे छूटे हैं,
नए घर में पहेचानूं किसको
यहाँ तो दर्पण भी सब टूटे हैं!

इतनी विनती सुनना भगवन , न दोहराना ये प्रतिघात,
इस जन्म किया सो किया अगले जन्म ये न करना मेरे साथ,
अगर बेटी जग कि जननी है तो क्यों सीना उसका छलनी है,
डोली में बिठाया था तुमने आभास हुआ ये अर्थी है !!

रंजीता (दार्जीलिंग ) को समर्पित...शब्द मेरे हैं , ये कहानी उसकी है !!

Thursday, February 25, 2010

गुमान...----और कौन, गुलज़ार!!

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने----

काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने इक चराग जला कर,
अपना रास्ता खोल लिया

तुमने एक समंदर हाथ में ले के,
मुझ पे ठेल दिया,
मैंने नूंह कि कश्ती उसके ऊपर रख दी,
काल चला तुमने और मैंने जानिब देखा
मैंने काल को तोढ़ के लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया

मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया----
मौत कि शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई
मैंने जिस्म का खोल उतार के सौंप दिया--और रूह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब "तुम" देखो बाज़ी

मैं उढ़ते हुए पंछियों को डराता हुआ
कुचलता हुआ घास कि कलगियाँ
गिराता हुआ गर्दनें इन दरख्तों की, छुपता हुआ जिनके पीछे से निकला चला जा रहा था सूरज
तआकूब में था उसके मैं
गिरफ्तार करने गया था उसे
जो लेके मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था!!

दो ही तरीके होते हैं ज़िन्दगी जीने के...इक हार मान लो और उसे नसीब का नाम दे दो या चुनौती समझ कर ऐलान-- जंग कर दो.........मैं फिर दूसरा रास्ता चुन रही हूँ, जा रही हूँ लाम पर!!
भावनाओं कि सरहद पर, तर्क-वितर्क का असला लिए, आत्मा-सम्मान की लड़ाई लड़ने..............ये रण है!!