Wednesday, December 8, 2010

मंच...


आज फिर जिया उन चंद हसीं लम्हों को मैंने जो मेरी पहचान हुआ करते थे........ रुआंसी सी हो गयी थी मैं आवाज़ कुछ भर्राई थी, चंद लम्हों के लिए मेरे चारों ओर सिर्फ मेरी तन्हाई थी, वो मंच जो मेरी पहेचान हुआ करता था, वो खूबियाँ जिन पर कभी गुमान हुआ करता था , आज उस मंच से फिर रु-बरु हुई........................ कहाँ खो गयी हूँ मैं, क्यों मिल नहीं जाती खुद को वापिस , मैं जीना चाहती हूँ , मैं ज़िन्दगी को चाहती हूँ, हाँ, मैं जीना चाहती हूँ!