Wednesday, September 9, 2009

आज शायद मैं सो पाऊंगी....

आज शायद मैं सो पाऊंगी,

स्वप्ना सजीले के दर्पण में ख़ुद से आँखें मिला पाऊंगी,

कुछ अद्भुत हुआ क्या आज? तुम पूछोगे,

उत्तर इस प्रश्न का कैसे समझा पाऊंगी,

कुछ ख़ास तो नहीं फिर भी कुछ भिन्न था,

अपने रोज़मर्रा के काम की थकान से मन काफ़ी खिन्न था,

फिर भाग्य ने मुझे मौका दिया,

एक "माँ" के दर्द ने मुझे चौंका दिया,

उसका नन्हा बालक बहुत बीमार था, सड़क पर एक मैली -कुचैली सी गुदडी में लिपटा लेटा हुआ उसे तेज़ बुखार था,

वो "माँ" एक धोबन थी, उसके चारों तरफ़ प्रेस करने वाले कपडों का अम्बार था,

बेचारी अपने काम से आँखें चुरा कर बीच-बीच में देख लेती थी,हर माँ की तरह मन उसका भी लाचार था,

मैं काफ़ी देर तक छत्त से बैठी ये क्रम देखती रही,उस प्रेस के खोखे में आज अजीब सी खामोशी का हाहाकार था,

कुछ देर बाद वहां की बेचैन खामोशी मुझे विचलित करने लगी,

मेरे मन में भी ममता की चीत्कार उठने लगी,

मैं झटपट उतर कर सड़क-पार गई, हलके से उस "माँ" के कंधे पर हाथ रखा,

विस्मित ,विक्षिप्त सी "माँ" ने तुंरत पलट कर सामने खड़ी दूसरी माँ की आँख में अपने दुःख का भाव देखा,

उस बेचारी के सबर का बाँध टूट पड़ा, आंखों से अश्रु धारा बहने लगी,

कुछ कहे , कुछ अनकहे शब्दों के बीच वो अपने भाग्य को कोसने लगी ,

मजदूरी करना उसकी मजबूरी थी, एक वो ही थी गृहस्थी में जो हाथ-पाऊँ से पूरी थी,

बिलख-बिलख कर रोती उस सामने खड़ी " माँ "की आवाज़ मेरे कानों में सीसा घोल रही थी ,

वो उसका जीवन सत्य था , प्रतीत होता जैसे कहानी बोल रही थी,

एक अपाहिज की बीवी और पाँच अबोध बच्चों की माँ थी,

लोग धोबन ही समझते ,भूल जाते की वो भी हाड-मांस की बनी इंसान थी ,

वो मन को बेंधती आँखें, जर्जर सा हड्डियों का ढांचा, बोलते बोलते मुझ में इंसानियत को ढूंढ रहा था,

शर्मसार थी मैं , मुझे कुछ हल नहीं सूझ रहा था,

उसके अंतर्मन की आंधी निशब्द हो कर जब रुकी, मेरी पढ़ी-लिखी पलक स्वतः नीचे झुकी,

कितने निष्ठुर-कितने स्वार्थी हैं हम लोग जो ख़ुद को संपन्न कहते हैं,

शिक्षा के सार की निरंतर निर्लज्जता से अवहेलना करते रहते हैं,

क्या सीखा हमने ?कुछ भी तो नहीं,

एक इंसान का दुःख भी अगर हम बाँट नहीं सकते हैं,

अमीर-गरीब,छोटा-बड़ा,साक्षर-निरक्षर की खाई को अगर हम पाट नहीं सकते हैं,

क्यों उसकी पीड़ा -मेरी पीड़ा से कम है, क्यों उसकी ममता -मेरी ममता में अन्तर है,

बनाने वाला तो सुना है सबका वही एक इश्वर है..........................

धिक्कार है इस दिखावे की चकाचौंध पर ,जो एक माँ को दूसरी माँ का दुःख समझने से रोकती है,

नोच फेंकती हूँ इन सामजिक रूढियों को मैं आज जो वर्गीकरण के नाम पर गरीबों का खून पूरी चुस्ती से चूसती है,

केवल स्थिर खड़े रह कर उसके कहे को सुना मैंने, एक असहाय बहादुर सबला के दुःख को आत्मसार किया मैंने,

मन हल्का कर लेने से ही वो कृतज्ञ थी,

इसके आगे कुछ करूं मैं, न उसे अपेक्षा थी-न ही मैं समर्थ थी,

एक माँ ने कहा- एक माँ ने सुना,

वात्सल्य ने नया सा रिश्ता बुना....

बस इसके आगे और नहीं कुछ कह पाऊंगी,

मैं भी स्वार्थी हूँ, यही सोच कर खुश हूँ की शायद आज मैं सो पाऊंगी............................

8 comments:

Unknown said...

wow.. its amazing.. aaj shayad main bhi so paaungi

Miles To Go ...... said...

aatma tak chu gaye tumahare shabad .... i feel g8 that atleast i know one soul on this earth who have heart beating in her body ....

a mother understanding another mother's pain ... a mother touching another mother's soul

Pal said...

i was feeling lil low today...i cried my heart out after reading your poem just now...and i am feeling better...Nidhi tonight many others will sleep better because of your one single deed...thanks for unkowingly giving me an outlet for my tears.

BeingSuman said...

I am really touched by ur piece nidhi...it reminded me of some one i had seen by the roadside long ago ...and haven't forgotten her ever..

Nims said...

shayad saari maaon ko ek dusre ko samjhane ke liye shabdon ki aawashyakta nahi hoyi hai. dil ko chho gayi tumhari ye kriti.
aaj shayad mera rone ka din hai, pehle jaishri ki peom fir tumhari ye kavita mujhe mere 'Shashwat' ki bahut yaad dila rahe hain.

Unknown said...

loved reading it nidhi!!
absolutly wonderfully expressed.

Myself said...

very true!!!!

My Lost World said...

ishwar barkat de tumhare alfaazon mein, tumhari kalam mein, chintan shakti mein. itne achche vichar, itni achchi soch, aankhon ko he nahi tumhari is kriti ne hriday mein bhi nami dee hai aaj...

shukriya nidhi..