Tuesday, October 13, 2009

मेरी पहली नज़्म..

कीतनी खामोश सी है खामोशी
कीतना दर्दनाक सा ये सन्नाटा
कीतनी बेचैन है ये बेचैनी
बड़ा बेवफा सा वक्त जो न लौट पाता
क्या हासिल, कौनसा साहील
सैलाब ने पी ही लीया शहर सारा......
वो यादों के खंडहर भी
वो नशीले से मंज़र भी
वो आसुओं की मुस्कराहट भी
वो हँसते हुए खंजर भी
इक लम्हा भी न पीछे छूटा ,बह गया हर नज़ारा..................
ये लहर क्यों मूढ़-मूढ़ कर कर आती है इस पार
मेरे बुत से टकरा कर लौट जाती है हर बार
किसकी तलाश है, क्या ढूंढती है
ले कर आगोश में गर्दा सारा.........
चील-कौव्वे खा गए तेरे-मेरे बीच बीते हर लम्हे को
उस गली को, मुंडेर को, सारे रास्तों को,
फिर भी कैसी धींट है
यादों के भंवर ने छोढ़हा नहीं आज भी उम्मीद का सहारा................

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